Sunday, March 15, 2015

शायद..!!



सूरज मद्धम हो चला था मगर, फिर भी उसे उसी तारीख में, एक बार फिर चमक जाने की चाहत थी शायद...

रात अभी भी ठीक से हुई नहीं थी फिर भी, कुछ तारो को जल्दबाजी मैं टिमटिमाने की चाहत थी शायद...

खुश्क आसमान मैं भी, उड़ते गुलाल से रंगों के बदल को, टूट टूट कर बरस जाने के चाहत थी शायद...

लाल क्षितिज़ के रोके जाने पर भी, कुछ दिलेर परिंदों को, रात भर उड़ते चले जाने की चाहत थी शायद...

हवा के दिल मैं आज सिर्फ, चुपचाप बहने के बजाए, कुछ नए तराने गुनगुनाने की चाहत थी शायद...

दुनिया उनके रंगों को देख न पाए तो क्या, फूलो को फिर भी अपनी खुशबू फ़ैलाने की चाहत थी शायद...






परिन्दे..!!

एक रोज़ ढलती शाम में
जब आँखें अपनी उठाई मैंने
दिखाई दिए कुछ परिन्दे मुझको
उस पिघलते आसमान में

साथ साथ में और लय मिलते
अलग अलग से आकर बनाते
कभी सीधी पंक्ति मैं उड़ते
तो कभी अटखेलियाँ भी करते

कभी कुछ दो एक पीछे रह जाते
तो कभी कुछ आगे भी निकल जाते
कभी कभी तो सब बिखर से जाते
लेकिन फिर सारे मिल भी जाते

पता नहीं कहाँ है जाना उनको
पता नहीं क्या है पाना उनको
पता नहीं वो कहा से हे आए
नीले आसमान मैं पंख फैलाए

कभी कही हवा के झोंकों के साथ
फिर कही उन्ही झोकों के खिलाफ
थी उनको अपनों से मिलने की आस
या फिर शायद दाना पानी की तलाश

एक रोज़ ढलती शाम में
जब आँखें अपनी उठाई मैंने
दिखाई दिए कुछ परिन्दे मुझको
उस पिघलते आसमान में