एक रोज़ ढलती शाम में
जब आँखें अपनी उठाई मैंने
दिखाई दिए कुछ परिन्दे मुझको
उस पिघलते आसमान में
साथ साथ में और लय मिलते
अलग अलग से आकर बनाते
कभी सीधी पंक्ति मैं उड़ते
तो कभी अटखेलियाँ भी करते
कभी कुछ दो एक पीछे रह जाते
तो कभी कुछ आगे भी निकल जाते
कभी कभी तो सब बिखर से जाते
लेकिन फिर सारे मिल भी जाते
पता नहीं कहाँ है जाना उनको
पता नहीं क्या है पाना उनको
पता नहीं वो कहा से हे आए
नीले आसमान मैं पंख फैलाए
कभी कही हवा के झोंकों के साथ
फिर कही उन्ही झोकों के खिलाफ
थी उनको अपनों से मिलने की आस
या फिर शायद दाना पानी की तलाश
एक रोज़ ढलती शाम में
जब आँखें अपनी उठाई मैंने
दिखाई दिए कुछ परिन्दे मुझको
उस पिघलते आसमान में
जब आँखें अपनी उठाई मैंने
दिखाई दिए कुछ परिन्दे मुझको
उस पिघलते आसमान में
साथ साथ में और लय मिलते
अलग अलग से आकर बनाते
कभी सीधी पंक्ति मैं उड़ते
तो कभी अटखेलियाँ भी करते
कभी कुछ दो एक पीछे रह जाते
तो कभी कुछ आगे भी निकल जाते
कभी कभी तो सब बिखर से जाते
लेकिन फिर सारे मिल भी जाते
पता नहीं कहाँ है जाना उनको
पता नहीं क्या है पाना उनको
पता नहीं वो कहा से हे आए
नीले आसमान मैं पंख फैलाए
फिर कही उन्ही झोकों के खिलाफ
थी उनको अपनों से मिलने की आस
या फिर शायद दाना पानी की तलाश
एक रोज़ ढलती शाम में
जब आँखें अपनी उठाई मैंने
दिखाई दिए कुछ परिन्दे मुझको
उस पिघलते आसमान में
1 comment:
थी उनको अपनों से मिलने की आस
या फिर शायद दाना पानी की तलाश
उम्दा ..!!
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