Sunday, March 15, 2015

शायद..!!



सूरज मद्धम हो चला था मगर, फिर भी उसे उसी तारीख में, एक बार फिर चमक जाने की चाहत थी शायद...

रात अभी भी ठीक से हुई नहीं थी फिर भी, कुछ तारो को जल्दबाजी मैं टिमटिमाने की चाहत थी शायद...

खुश्क आसमान मैं भी, उड़ते गुलाल से रंगों के बदल को, टूट टूट कर बरस जाने के चाहत थी शायद...

लाल क्षितिज़ के रोके जाने पर भी, कुछ दिलेर परिंदों को, रात भर उड़ते चले जाने की चाहत थी शायद...

हवा के दिल मैं आज सिर्फ, चुपचाप बहने के बजाए, कुछ नए तराने गुनगुनाने की चाहत थी शायद...

दुनिया उनके रंगों को देख न पाए तो क्या, फूलो को फिर भी अपनी खुशबू फ़ैलाने की चाहत थी शायद...






3 comments:

Peeyush said...

very nice ..!!

Unknown said...

It's very good

Anonymous said...

wonderful :)